ताठावली मान
मूर्त अभिमान
किति तरी हार
वेढून बेजार
त्यातलेच फूल मानेला म्हणाले
केव्हढी ही गुर्मी
किति अहंकार
दर्पास अपुरे
शरीर आवार
मद मदिरे ने सर्व भग्न प्याले
प्रश्न आहे फक्त
स्थान सोडण्याचा
माने ऐवजी मी
वक्षी पडण्याचा
जेथ अवसानी कोसळती फुले
डॉ. शरद काळे
टाटानगर, १९६६
Sunday, October 16, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
सुन्दर प्रस्तुति। बधाई।।। हालांकि मराठी में हाथ तंग है।
आप आये कविता पढी अचछा लगा। आपके लिये इसका अनुवाद मूल कविता जितना सुंदर सटीक तो नही पर फिर भी।
अकडी हुई गर्दन
हारों से लदी
भार से बेज़ार
पर अभिमान से तनी
हार का एक फूल बोला
कितना बडा अहंकार का चोला
शरीर भी पूरा नही पडता
मद की मदिरा से टूट रहा हर प्याला
प्रश्न है सिर्फ स्थान छोडने का
गर्दन की जगह मेरा वक्ष पर होने का
जहैाँ गिरते हैं फूल अवसान के समय।
wah...sundar bhav...mn mugdh ho gaya..yunhi hindi me bhi likh diya karen...aabhar.
Post a Comment